मेरे एक कंधे पर पिता की अर्थी और दूसरे पर सर्टिफिकेट का बैग था... 3 बच्चों के पिता के पुलिस अफसर बनने की कहानी

नई दिल्ली: 'जेब में महज 500 रुपये थे। पत्नी मायके में थी और पता नहीं कहां-कहां से बचत करके अपने पास रखे हुए वो रुपये, उसने मेरी जेब में डाल दिए। पटना जैसे शहर में सरकारी नौकरी की तैयारी करने वाला एक इंसान 500 रुपये में कब तक गुजर-बसर करता। वक्त

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नई दिल्ली: 'जेब में महज 500 रुपये थे। पत्नी मायके में थी और पता नहीं कहां-कहां से बचत करके अपने पास रखे हुए वो रुपये, उसने मेरी जेब में डाल दिए। पटना जैसे शहर में सरकारी नौकरी की तैयारी करने वाला एक इंसान 500 रुपये में कब तक गुजर-बसर करता। वक्त बीत रहा था और हालत ऐसी हो गई कि केवल 50 रुपये ही हाथ में रह गए। भूख लगी थी, लेकिन खाना ना खाकर उन 50 रुपयों के अखबार खरीद लिए और पटना के चौराहे पर खड़ा होकर बेचने लगा। हालत इस कदर खराब हो गई थी कि गली के कुत्ते मुझे देखकर भौंकते थे।'
ये आपबीती है बिहार के बांका जिले में पड़ने वाले बरौथा गांव के त्रिपुरारी कुमार की, जो इस वक्त बिहार पुलिस में सब इंस्पेक्टर हैं। नवभारत टाइम्स ऑनलाइन के साथ अपनी संघर्ष भरी कहानी शेयर करते हुए त्रिपुरारी कुमार ने बताया कि उनका बचपन बेहद गरीबी में बीता और पिता खेती करके परिवार चलाते थे। दो भाइयों में त्रिपुरारी छोटे हैं और 10वीं के बाद ही उन्होंने गांव के छोटे बच्चों को ट्यूशन पढ़ाना शुरू कर दिया था।

कुछ वक्त बीता तो दोनों भाई मिलकर घर में ही एक छोटा सा स्कूल खोलकर बच्चों को पढ़ाने लगे। लेकिन, उनके पिता को ये पसंद नहीं था। एक दिन गु्स्से में बोले कि मेहनत करके जितना तुम दोनों भाइयों को पढ़ाया, उतना अगर मैं पढ़ा होता तो आज दरोगा होता। बस यही बात त्रिपुरारी के दिल को लग गई और उन्होंने बिहार पुलिस में सब इंस्पेक्टर की तैयारी शुरू कर दी।

चटाई बिछाकर बेचते थे सामान

कम उम्र में ही पिता ने त्रिपुरारी की शादी भी करा दी। इसके बाद साल 2004 में बिहार में दरोगा भर्ती निकली और त्रिपुरारी ने इसमें अप्लाई कर दिया। अगले साल हुई दौड़ में उन्होंने क्वालीफाई किया, लेकिन साल 2006 में बिहार में राष्ट्रपति शासन लग गया। ये वो वक्त था, जब त्रिपुरारी पटना में अपने जिले के एमएलसी को आवंटित फ्लैट में नीचे फर्श पर सोकर रात गुजारते थे।

दो साल बाद इस भर्ती परीक्षा का रिजल्ट आया, लेकिन त्रिपुरारी मेरिट लिस्ट में जगह नहीं बना पाए। इसके बाद वह अपने गांव आ गए और 20 हजार का लोन लेकर बीएड की पढ़ाई पूरी की। जब कहीं से कोई उम्मीद की किरण नहीं दिखी, तो त्रिपुरारी ने 15 फीसदी कमीशन पर एक कंपनी का एलोविरा जूस बेचना शुरू कर दिया। वो हर दिन कचहरी के बाहर दीवार पर बैनर टांगकर और जमीन पर चटाई बिछाकर ये सामान बेचते।

भर्ती की दौड़ से ठीक पहले पिता का निधन

एक दिन उनके सामने से पुलिस की एक गाड़ी गुजरी, जिसमें उनके साथ तैयारी करने वाला एक पुराना साथी दरोगा की वर्दी पहने बैठा था। त्रिपुरारी ने फिर से हिम्मत जुटाई और फैसला लिया कि अब चाहे जो हो जाए, दरोगा ही बनेंगे और वो फिर से तैयारी करने लगे। उनकी पुरानी भर्ती का मामला हाईकोर्ट में था। 2015 में आदेश आया कि फिर से फॉर्म भरे जाएंगे, लेकिन वही लोग अप्लाई कर सकते हैं, जिन्होंने 2004 में फॉर्म भरा था।

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त्रिपुरारी ने फॉर्म भरा और 11 जुलाई 2016 को उनकी दौड़ होनी थी। यहां किस्मत ने एक बार फिर उनके साथ खेल खेला। दौड़ के लिए उन्हें 9 जुलाई को निकलना था और शाम 4 बजे की गाड़ी थी, लेकिन उसी दिन शाम को उनके पिता की तबीयत बिगड़ी और 5 बजे निधन हो गया। एक तरफ पिता का अंतिम संस्कार था और दूसरी तरफ एक दिन बाद होने वाली दरोगा भर्ती की दौड़।

चिता पर खाई कसम, दरोगा बनकर ही लौटूंगा

उन्होंने तय किया कि अगले दिन सुबह पिता का अंतिम संस्कार कर पटना के लिए निकलेंगे। शाम को ही उन्होंने अपना पासपोर्ट साइज फोटो खिंचाया और दूसरे पेपर पूरे कर लिए। अगली सुबह उनके एक कंधे पर पिता की अर्थी और दूसरे कंधे पर सर्टिफिकेट का बैग था। त्रिपुरारी का मन भारी था, लेकिन पिता की चिता को मुखाग्नि देते हुए कसम खाई कि अब दरोगा बनकर ही लौटेंगे।

पटना पहुंचकर त्रिपुरारी को पता चला कि दौड़ की तारीख बदलकर 15 जुलाई हो गई है। अब उन्हें तैयारी के लिए भी कुछ वक्त मिल गया। त्रिपुरारी ने तय समय से पहले ही अपनी दौड़ पूरी कर ली। उनकी स्पीड देखकर उस समय वहां मौजूद डीआईजी ने भी उनकी पीठ थपथपाई। इसके बाद वह गांव वापस आए और पिता के अंतिम संस्कार की बाकी रस्में पूरी कीं।

गुरु को फीस के तौर पर दिए दो पेन

दौड़ के बाद अब बारी थी लिखित परीक्षा की। पटना में उन्होंने सुना कि यहां एक गुरु रहमान हैं, जो दरोगा भर्ती की तैयारी कराते हैं, लेकिन त्रिपुरारी के पास फीस के रुपये नहीं थे। उन्होंने दो पेन खरीदे और उन्हें लेकर ही गुरु रहमान के पास पहुंच गए। उनसे बताया कि दरोगा बनना चाहता हूं, लेकिन फीस नहीं दे सकता। गुरु रहमान ने उनके कंधे पर हाथ रखा और कहा, मन लगाकर पढ़ो, फीस की फिक्र छोड़ दो।

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इस दौरान उनकी पत्नी मायके में रह रहीं थी। त्रिपुरारी पत्नी से मिलने आए और बताया कि अब पटना में रहकर ही तैयारी करेंगे। पत्नी ने अपनी बचत के रखे हुए 500 रुपये उनकी जेब में डाल दिए। कुछ वक्त बीता और पत्नी के दिए हुए रुपये खत्म होने लगे। उनकी जेब में महज 50 रुपये का एक नोट बचा। इसी बीच 8 नवंबर 2016 को नोटबंदी हो गई और स्थिति ऐसी आ गई कि लोगों ने उधार रुपये देने भी बंद कर दिए।

हालत ऐसी हो गई कि कुत्ते भौंकते थे

ऐसे में त्रिपुरारी ने अगली सुबह 50 रुपये के अखबार खरीदे और पूरे दिन भूखे रहकर पटना के चौराहे पर इन्हें बेचा। शाम तक 25 रुपये की कमाई हुई और 50 रुपये बढ़कर 75 हो गए। इसी दौरान उनके एक साथी ने बताया कि नोटबंदी हो गई है, अगर तुम लाइन में लगकर किसी के नोट बदलवाओगे तो बदले में 200 रुपये मिलेंगे। त्रिपुरारी दो दिन लाइन में लगे और किसी दूसरे आदमी के 4500-4500 रुपये के पुराने नोट बदलवाए। उन्हें 400 रुपये मिल गए।

अब उनका यही रुटीन हो गया, वो सुबह अखबार खरीदकर बेचते और दोपहर 2 बजे से अपनी कोचिंग क्लास जाते। त्रिपुरारी बताते हैं कि उनकी हालत ऐसी हो गई थी कि लंगर में जाकर चाय पीते, वहीं पर खाना खाते। सुबह 4 बजे उठकर अखबार खरीदते और दोपहर को अगर कुछ अखबार बच जाएं तो मालिक की गालियां सुनते। कपड़ों की स्थिति ऐसी हो गई थी कि गली में कुत्ते उन्हें देखकर भौंकते थे।

आखिरकार पा ली अपनी मंजिल

2017 में उन्होंने दरोगा भर्ती की परीक्षा दी। रिजल्ट आया तो मेरिट लिस्ट में त्रिपुरारी का नाम था। ये वो पल था, जब उनकी आंखों मे खुशी के आंसू थे। 1 नवंबर 2017 को उन्हें ज्वॉइनिंग मिल गई। ट्रेनिंग के दौरान ही एक दिन वर्दी पहनकर वह घर आए, तो मां ने उनके साथ अपना फोटो खिंचाया। कुछ वक्त बाद मां का निधन हो गया, शायद अपने बेटे को वर्दी में देखने के लिए ही वो जीवित थीं।

त्रिपुरारी बताते हैं कि इस समय वह शेखपुरा जिले के कुसुंभा थाने में तैनात हैं, लेकिन यहां तक पहुंचने के लिए उन्होंने जीवन का सबसे मुश्किल दौर देखा। लोग ताने मारने लगे थे कि वर्दी पहनने का ज्यादा शौक चढ़ा है, तो खुद से ही सिलवाकर पहन लो और पूरे गांव में घूम लो। हालांकि, त्रिपुरारी ने हार नहीं मानी और तमाम मुश्किलों को झेलते हुए कामयाबी हासिल की।

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मनोज शर्मा

मनोज शर्मा (जन्म 1968) स्वर्णिम भारत के संस्थापक-प्रकाशक , प्रधान संपादक और मेन्टम सॉफ्टवेयर प्राइवेट लिमिटेड के मुख्य कार्यकारी अधिकारी हैं।

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